Last modified on 11 जून 2016, at 08:35

निशाचर / वीरू सोनकर

[१]

तुम्हारी जादुई अँधेरी रात पर
थर-थर काँपता वासना का पत्ता नहीं,
न ही वह मौन उदास संगीत
जिसे सुनने की चाह में तुम
सन्नाटी रातो की मौज अकेले काट रहे हो,

तुम तक बादलो सा छाया,
तुम तक किसी जिद सा आया
प्रेम की पहली आहट सा
हल्का-हल्का महकता हुआ
आत्मा में घुल रहे एक शरीर का गुप्त प्रत्यक्षदर्शी

दिन के सभी रंगो की
छिटकी चित्तियों के पीछे से झाँकता,
स्वरों में चुप
पर मौन-संवाद में एकदम मुंहलगा
मैं तुम्हारी आत्मा की गर्भनाल की गाँठ नहीं

मैं तुम्हारा निशाचर हूँ!

[२]

दिन की खींची उबासी का उगलदान नहीं
न ही तारों की बेपरवाह गिनी गयी गिनतियों के भूलने का किस्सा,
तुम्हे अचेतन प्रतीक्षा के अनमने अस्वाद से अटे पड़े
दिन के विराट मरुस्थल से
आहिस्ता-आहिस्ता साँझ के दरवाजे तक बुला कर लाया
मैं रात के दरवाजे की पहली दस्तक हूँ!

एकदम ठीक-ठाक घंटो में गुजरे दिन का चेहरा नहीं,
अँधेरी सड़को पर
बेपरवाह बेमक़सद गुजरता और ठिठकता

मैं तुम्हारा निशाचर हूँ!

[३]

दिन के चमकीले शोर में किसी अँधेरे सा गुम
पर रात को तुम पर ओस सा टप-टप टपकता
मैं तुम्हारा कोई अधूरा हिस्सा नहीं,
अल्जाइमर की चोट से घायल
तुम्हारा भूला हुआ कोई अपराधबोध नहीं

आत्माए जहाँ चीखती है
और प्रेम झिझोड़ कर जगा देता है
सिगरेट के कश में उड़ता
मैं कोई वक्त का कोई बेकार हिस्सा नहीं,

तुम्हारे नायकत्व को
हर रात किसी ताजा खिले फूल सा लौटाता
मैं तुम्हारा निशाचर हूँ!