(१)
कम करता ही जा रहा है आयु-पथ काल
रात-दिन रूपी दो पदों से चल करके।
मीन के समान हम सामने प्रवाह के
चले ही चले जा रहे हैं नित्य बल करके॥
एक भी तो मन की उमंग नहीं परी हुई
लिए कहाँ जा रही है आशा छल करके।
निखर कढ़ेंगे क्या हमारे प्राण कंचन की
भाँति कभी चिंतानल में से जल करके॥
(२)
अपना ही नभ होगा अपने विमान होंगे
अपने ही यान जब सिंधु पार जायेंगे।
जन्म-भूमि अपनी को अपनी कहेंगे हम
अपनी ही सीमा हम आप ही रखायेंगे॥
अपना ही तन होगा अपना ही मन होगा
अपने विभव का प्रभुत्व हम पायेंगे।
कौन जाने कब भगवान इस भारत के
आगे हाथ बाँधे ऐसे प्यारे दिन आयेंगे॥