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निषाद-कन्या / विवेक निराला

मैं मछलियां बेचती हूँ
जल से ही शुरू हुआ जीवन
पृथ्वी पर, मेरा भी।

आदिकाल से ही अपने
देह की मत्स्यगंध लिए
महकती, डोलती
तुम्हारी वेगवती
कल्लोलिनी भाषा के प्रवाह में
मछलियां पकड़ती
अपने को खोलती।

मेरा ध्रुवतारा जल में है
मेरा चांद, मेरा सूरज

जल में ही दिपता है
मेरे लिए आरक्षित नहीं कुछ
मछली भर मेरी निजता है।

अपने गलफरों से सिर्फ़ तुम्हारे लिए
सांसे लेती थक गई हॅूं।
अपने घर लौट जाओ ऋषि!
तुम्हारे आत्मज संकल्पबद्ध हैं
और तुम्हारे पास
न अपनी जर्जर देह का कोई
विकल्प है, न परम्परा का।
ऋषि! लौट जाओ अपनी
अमरत्व और मोक्ष की
मोहक कामनाओं में।
मुझे तो इसी जल में
फिर-फिर जन्म लेना है।