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निष्कलंक / दिनेश कुमार शुक्ल

पृथ्वी-सा थका
और ईश्वर-सा असहाय
मैं
नहीं जानता
कि अब क्या होगा

क्या
अपने लोक वापस
लौट जायगी यह समय की नदी
तब मेरी अस्थियों का चूर्ण
तारों की तरह
क्या जगमगायगा सचमुच
सूखी नदी की बालू में

मैं तो वस्तु था
सभी के लिए इस संसार में
पड़ा रहूँगा
टूटे प्याले की तरह
कहीं विस्मृति की खत्ती में

वह सब जो होता है सुन्दर
सचमुच क्या
इतनी जल्दी उड़ जाता है
इत्र की तरह
सुन्दरता तो शाश्वत
हुआ करती थी कभी

रोडरोलर-सा भय
क्या सचमुच
पीस डालेगा प्रेम को
प्रेम तो होता था
हीरे-सा कठोर
अनश्वर

लौट जायगा समय
अपने अगम लोक
न रहेंगी दिशाएँ
न पृथ्वी न आकाश

न दुख न सुख
न प्रतीक्षा न अभिसार
न रहेगा कोई आकार
न स्मृतियाँ
न स्मृति-भ्रंश

कहीं कुछ नहीं होगा

किन्तु फिर भी शायद
कहीं कुछ बचेगा
थरथराता निश्शब्द
सघन मौन से भरता
तुम्हारे सूनेपन को
बचाता हुआ तुम्हें
कलंक की छाया से
क्या अलविदा...।