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नोर / कालीकान्त झा ‘बूच’

हंसलहुँ एक बेर जीवन मे, बेरि - बेरि कनैत रहल छी
बसलहुँ एक बेर जीवन मे, फेर - फेर उजड़ैत रहल छी

चलि - चलि भटकि - भटकि कऽ कखनो,
कखनो कऽ हम दौड़ि रहल छी
एक बुन्न जीवन क लेल
मरि - मरि कऽ मरू मे बौड़ि रहल छी
अपन मोन केॅ उघबा कऽ आनक तन केॅ उछहैत रहल छी

एक - एक सायक क चोट केॅ,
गुनि - गुनि छोट ध्यान नहिं देलहुँ
बड़ कचोट चालनिक रूप मे,
देखि - देखि चुप्पे रहि गेलहुँ ।
ठोप - ठोप चारक चुआठ केॅ आँगुर सँ उपछैत रहल छी

शिल्पक छाॅछ कल्पना मूड़ा
भावक दही विचारक चूड़ा
आनलक जे बेगाड़ भूख मे,
पाबि रहल अछि खुद्दी गूड़ा
नवनीतक अछि लूट मुँदा हम छाॅछी छोरक लैत रहल छी