नौवारिद<ref>नया आगन्तुक</ref>
लुभा गया कोई जाना सा अजनबी मुझको…
मेरे सियाह बियाबाँ में रौशनी भरने,
मेरी बेजान सी नब्जों को जाँफिज़ा<ref>जान डाल देना / तरो-ताज़ा कर देना</ref> करने,
कौन है,
कौन है तू,
अजनबी,
पता तो बता?
मेरी यादों के कटघरे में तू
मुज्रिम भी नहीं,
शरीक़-ए-ज़िंदगी<ref>जिंदगी भर का साथी</ref>,
न कोई हमसफ़र मेरा!
कौन तू अजनबी,
कहाँ से चला आया है?
मुझे पेहचानता है,
जानता नहीं है मगर!
कहाँ मिला था,
कब मिला था,
मुझे याद नहीं!
हाँ, एक धुँधला-सा,
साया जो हुआ करता था…
कभी नज़र तो न आया,
मगर छुपा भी न था,
दूर, जो दूर,
कहीं दूर रहा करता था...
अभी यहाँ, कभी वहाँ,
कहीं तू ही तो न था?
(Aug ’96)
शब्दार्थ
<references/>