पंचतत्व ही तो थे मेरी निर्मिती के आधार
कहते हैं कि वे कभी चुकते नहीं
असंतुलित तो कभी होते ही नहीं
पर चुक रहे हैं तालाब
सूख रहीं हैं नदियाँ
सूख रहा है पंचतत्वों का मुखिया जल, और
पसार रहा है अगन पाखी पर
घुट-घुट दम तोड़ रही है हवा
हृदयहीना हो रही धरा
लंपट हो रहा आकाश
मैं डरी सहमी-सी देख रही हूँ
अपनी देह से बूंद-बूंद रिसता तत्व जल
कितनी भयावह दीख रही हूँ मैं, ख़ुद को
सूखे अकड़े दंड-सी
मात्र एक तत्व के बिना, अधूरे तत्वों में
क्या यूं ही झरने लगेंगे मेरी देह से
एक-एक कर सब तत्व
और फिर मैं नहीं ले सकूँगी कोई भी आकार
आकार, जो होता है मुक्ति पथ का द्वार
भटकती फिरूंगी यूं ही निराकार
बात यहीं ख़त्म होती तो फिर भी ठीक था
पर पंचतत्व तो एक-एक कर
झरने लगेंगे सभी की देहों से
एक दिन