ऊबड़-खाबड़ बेतरतीब पत्थरों में
थोड़ी जगह बनी।
बादलों की छाँह कभी दूर
कभी हुई घनी।
पास ही निर्झर की छल-छल
छलती रही।
जल सामीप्य की आस
पलती रही।
कँकरीली पथरीली एक चप्पा जगह
माटी की उर्वरता दूर से कर संग्रह
पौधा बढ़ता गया
मार्ग गढ़ता गया।
ऊबड़-खाबड़ बेतरतीब पत्थरों में
थोड़ी जगह बनी।
बादलों की छाँह कभी दूर
कभी हुई घनी।
पास ही निर्झर की छल-छल
छलती रही।
जल सामीप्य की आस
पलती रही।
कँकरीली पथरीली एक चप्पा जगह
माटी की उर्वरता दूर से कर संग्रह
पौधा बढ़ता गया
मार्ग गढ़ता गया।