परिपूर्वक विष् धातु, फिर अनट् प्रत्यय
इस तरह परिवेषण बनता है निश्चय --
अमरकोश कहता है -- माने परोसना
बरतन से पत्तल तक भोजन का पों'चना।
इधर ज़रा आइए तो लेकर पतीला
देखिए कि चलती है कैसे यह लीला
कोई कहे, दही देना, कोई कहे पूड़ी
कोई रुआँसा एक चाट पतल पूरी।
देखो उधर दो वीर बरतन ले हाथ
धकियाते जूझते निकलते हैं साथ
सभी यहाँ भूप, कौन सुनता है बात?
भूख से मृतप्राय पंगत की पाँत।
एक परोसे वाले हाथी-से तुँदियल
बिना झुके डालते हैं खाना ये अड़ियल
एक चाचा दूर की नज़र के हैं मारे
पत्तल को छोड़ दाल माटी पर डारें।
मुखिया जी जल्दी में आँख मूँद चलते
"चाहिए किसी को कुछ?" बोलते और बढ़ते
जिस ओर खाली पत्तलें, देखभाल
धीर-गति जाते उस ओर लिए थाल।
ध्यान रहे, व्यंजन मेहमान को परोसो
ग़लती से मत अपने मुँह में भकोसो,
बेमतलब ख़ाली हाथ भागा नहीं जाता,
शाकाहारी को न देना रोहू का माथा।
बिला वजह गुस्सा या बिला वजह प्यार
डलवा दे कहीं अगर चटनी की धार
किसी नई चद्दर पर, तो निपोर दाँत
ऐसे दिखो न जैसे की हो करामात।
सुकुमार राय की कविता : ’परिवेषण’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित