कृत कर्मों का लेखा-जोखा मन जब लेने लगता है
तब जाग्रत अविवेक मनुज को छलता और न ठगता है
भले-बूरे का ज्ञान उपजता, पश्चाताप उमगता है
अश्रु उमड़ते, पाप पिघलता, ग्रहण न शशि पर लगता है
देव, दनुज, दानव, मनुष्य के भीतर तीनों रहते हैं
दुष्मति करते अट्टहास, आँसू देवों के बहते हैं
पछतावे की अग्नि सुलगती, बुरे विचार भस्म होते
निर्मल होता हृदय, कलुष को आँसू से धोते-धोते
यही दशा हो रही द्वेष से हुए विपथगामी जन की
जले नाग ईर्ष्या के ज्यों ही पश्चाताप-अग्नि धधकी
जो भी हुआ अनय था, गर्हित महापाप भीषण था
देव-वृति, आसुरी-शक्ति का महाभयंकर रण था
पूर्व जन्म के संस्कार संभवतः बहुत मलिन थे
घृणित विचारों की वैतरणीमें डूबे पल-क्षिन थे
बैठ शीर्ष पर जो कुनबे के, यश की ध्वजा लिये था
जो देवों की अमृत-कला का उत्स समग्र पिये था
मूर्ति-कला जिसकी साँसों, रग-रग में बसी हुई थी
अप्रतिम कौशल था,छेनी पर मुट्ठी कसी हुई थी
उसकी हत्या कर ’वासव’ को दुरभिसंधि मंे झोंका
हाय ! विवेक !! न तुमने क्यों इन कुविचारों को टोका
मन ही मन रोते-पछताते षडयंत्री हत्यारे
अन्तर में धिक्-धिक्-ध्वनि, हमने हाय ! किया यह क्या रे
हा ! प्राणों की प्राण ! डाह, ईर्ष्या ने हमें दबोचा
यह होगा परिणाम, स्वप्न में भी न कभी था सोचा
हृदय तुम्हारा जीत रहा था शनैः-शनै परदेशी
सह न सका आघात हमारा छिद्रान्वेषी
ईर्ष्या के मारे डाही मन फूँका-फूँका जाता था
भीतर-भीतर घुटे ता रहे, मन का चैन पाता था
नहीं जान पाये इसका परिणाम भंयकर होगा
पाप हमारा, फल तुमने सर्वस्व गँवा कर होगा
ईर्ष्या, डाह, जलन कुकर्म की नींव बना करती हैं
नर-पशुओं की वृति पाप को और घना करती है
जिसने भी इन नाच वृतियों का ले लिया सहारा
वह बन गया हमारे जैसा ही जघ्न्य हत्यारा
सोच रहे-क्या जा कर नृप को सारी बात बता दें ?
अपना यह कुकृत्य, अपना सारा षड़यंत्र जता दें ?
कम से कम इससे वासव पर बराी घृणा हटेगी
यह कंलक-कालिमा, झूठ की यह प्राचीर कटेगी
पछतायेंगे नृपति, लोग मथुरा के लज्जित हांेगे
पश्चाताप जनित आँसू से हृदय निमज्जित होंगे
पा कर न्याय दंड के हाथो मन की शांति मिलेगी
सच है- एक बार तो सारी मथुरा डोल हिलेगी
किन्तु, तत्क्षण द्दग के आगे अंधकार-सा छाया
काँप गयी उपकी भीतर तक, भय से, दुर्बल काया
लगी चमकने वधिको की तलवारें नंगी ऐसे
उछल उड़ा देंगी ग्रीवा को पलक झपकते जैसे
सब कुछ कर सकता है दुर्बल मानव, किन्तु, मरण रे !
किसी मूल्य पर करने को तत्पर है वहीं वरण रे !
मोह प्राण का किसी-किसी को भले नहीं होता हो
मृत्यु-सिन्धु में हँसते-हँसते लग जाता गोता हो
किन्तु, प्राण भय हर प्राणी को कंपित ही करता है
मरना निश्चित है, पर मन से कभी नहीं मरता है
बदल गया विचार क्षण भर में, युक्ति समझ में आयी
क्यों न वरें सन्यास कि जिससे मुक्ति सभी ने पायी
क्षमा ! क्षमा !! ओ देवि ! क्षमा नापी का आभूषण है
क्षमा ! क्षमा !! हम देवि ! भिक्षु बन जाते बुद्धशरण हैं