पहाड़
एक पहाड़
थामा था जिसने
समूचा जंगल
थामे हुए थे जिसने पेड़-पौधे
जीव-जंतु, तालाब, गरोखर
और नदी....
वही नदी जिसने बहना भी सीखा
उसी पहाड़ की अतल गहराइयों में जाकर
जो टकराती रही पेड़ों के हज़ारों झुरमुटों से
और बहती रही समेटते हुए
तमाम कूड़े-कबाड़ को अपने अंदर
अपने से बाहर को साफ़-सुथरा करने के लिए
एक पहाड़
जिसके सीने में बिखरी पड़ी हैं
पूरे जंगल की जड़ें
एक जंगल जहां
पेड़ अपने पेड़ होने का अहसासभर नहीं कराते
बल्कि होते हुए पेड़
भर लाते थे अपने अंदर
पहाड़ की ऊंचाई
एक पहाड़
जिसकी विशालता उसकी ऊपरी कठोरता और
खाड़-खड्डों से नहीं
उसके अंदर मौजूद उस मोम से थी
जो पिघलना भी जानता था
और जमना भी
जो घरती के ममत्व के साथ अस्तित्व में आया
उसके अंदर बहने वाली
सभी धाराओं की बारीकियों से
पहचान की जानी चाहिए
उसके क़द की
सोच की....
एक पहाड़
जो पहाड़ होने के साथ
इंकार करता रहा पहाड़ होने से
वो पहाड़
वक़्त की तलहटी में खो गया
जिसने पैदा किए
कई-कई और पहाड़
इस ज़मीन को
सुंदर और हसीन बनाने के लिए....
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(गुरु एवं प्रिय दोस्त ‘के.पी.’ के निधन पर)
08/11/2009