धरती के गर्भ में
अकूत वेदनाओं का मवाद
भरा है लावा बनकर।
आज भी इसकी पीड़ाएँ
मौजूद हैं धरती पर
पहाड़ों के रूप में।
धरती की पीड़ाएँ
पहाड़ बन कर
छूना चाहती हैं आकाश।
जहाँ है चिर शांति
जहाँ है पूर्ण देवत्व
जहाँ है पावन सुरलोक
जहाँ मिल जाता हैं
सब दुःखों से अवकाश।
पहाड़ जब रोते हैं
तब नहीं बहते हैं आँसू।
पहाड़ जब रोते हैं
तब निकलती हैं निर्मल नदियाँ।
पहाड़ दर्द में कराह कर
नहीं करते हैं रुदन-क्रन्दन
पहाड़ नदियों की कलकल से
करते हैं धरा का वंदन-अभिनंदन।
पहाड़ों से बहकर आई
नदियों की तलछट कहती है कि
आँसुओं के बहने के साथ ही
बह जाता है
पीड़ाओं का कुछ हिस्सा भी।
आकाश का आँचल पाकर
पीड़ाओं का पहाड़
हो जाता है
बर्फ की तरह मखमली,
रुई के फोहे की तरह मुलायम।
जिनके नीचे छुपा है
सदियों से संचित रोष-आक्रोश।
क्योंकि पहाड़ जानते हैं कि
इंसान सुखों का साथी है।
अब कभी अगर जाओ पहाड़ों पर
तो कुरेदने की बजाय
संभाल लेना इसके घावों को।
संवार लेना इसके अभावों को।
इससे पहले कि
दुःखों का लावा तप्त हो
फूट पड़े ज्वालामुखी बनकर।
हौसला कमजोर होकर
टूट पड़े भू-स्खलन बनकर।