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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - २

है सरस भावुकता-परिणाम।
करुण रस का उर में संचार।
कहाँ तब पाया हृदय पसीज।
दृगों में बही न जो रस-धार॥3॥

शान्ति-जननी सत्यता-विभूति।
पूततम भावों की हैं पूत्तिक।
मही में है बहु महिमावान।
दिव्य है मानवता की मूर्ति॥4॥

कान्त कृति-रत्न राजि खनि मंजु।
सुरुचि-स्वामिनी सुअनुभवनीय।
परम कामदा साधना-सिध्दि।
सुमति है कामधेनु कमनीय॥5॥

ललित रुचि है कुसुमालि-समान।
कल्पतरु-से हैं भाव ललाम।
लोक-अभिनन्दन कान्त नितान्त।
शील है नन्दन-वन अभिराम॥6॥

मलिन मन को धो हर तन-ताप।
खोलता है सुरपुर की राह।
धारा में सदाचार सब काल।
सुरसरी का है पूत प्रवाह॥7॥

रहे जिससे जीवन का रंग।
वही है बहु कमनीय उमंग।
हंस जिससे मुक्ता पा जाय।
वही है मानस-मंजु-तरंग॥8॥

प्रेमाश्रु
(4)

सिंची बहु सरस बन-बन जिससे
वह मानवता-क्यारी।
जिसमें विकसित मिली रुचिर रुचि
की कुसुमावलि सारी।
जिसकी बूँद-बूँद में ऐसे
सिक्त भाव हैं पाते।
जिसके बाल से नीरस उर भी
हैं रसमय बन जाते॥1॥

जिसमें अललित लोभ की लहर
कभी नहीं लहराती।
जिसमें छल-बल की प्रपंच की
भँवर नहीं पड़ पाती।
जिसमें विविध विरोधा वैर के
बुद्बुद नहीं दिखाते।
जिसने कलह-कपट-कुचाल के
है शैवाल न पाते॥2॥

सदा डूब जाती है जिसमें
अहितकारिता-नौका।
मिली न जिसमें रुधिकर-पान-रत
कुत्सित नीति-जलौका।
जिसमें मद-मत्सर-प्रसूत वह
वेग नहीं मिल पाता।
पड़ जिसके प्रपंच में जनहित-
पोत टूट है जाता॥3॥

जिसकी सहज तरलता है
पविता को तरल बनाती।
जिसकी द्रवणशीलता है
वसुधा में सुधा बहाती।
जिसके पूत प्रवाह से धुले
मानस का मल सारा।
नहीं नयन से क्यों बहती वह
प्रेम-अश्रु की धारा॥4॥

प्रेम-तरंग
छप्पै
(5)

वसुधा पर विधु-सदृश सुधा है वह बरसाता।
वह है जलद-समान जगत का जीवन-दाता।
वही सदा है कामधेनु कामद कहलाता।
वही कल्पतरु-तुल्य बहु फलद है बन पाता।
जो जन-रंजित हो सके भव-अनुरंजन-रंग से।
जिसका मानस हो लसित पावन प्रेम-तरंग से॥1॥

सत्य-सन्देश
(6)

भक्त-जन-रंजन की वर भक्ति।
कगी किस उर में न प्रवेश।
रुचिर जीवन न बनेगा कौन।
सुन सुरुचि-भरित सत्य-सन्देश॥1॥

जगेगा भला न किसका भाग।
लगेगा किसे न प्यारा देश।
बनेगा कौन न शुचिता-मूर्ति।
हृदय से सुने सत्य-सन्देश॥2॥

परम भय-संकुल हो सब काल।
अभय करता है वर आदेश।
तरंगाकुल भव-सिंधु-निमित्त।
पोत है पूत सत्य-सन्देश॥3॥

दूर करता है तम-अज्ञान।
हटाता है भव-रजनी-क्लेश
उरों में जगा ज्ञान की ज्योति।
भानुकर-सदृश सत्य-सन्देश॥4॥

सत्य-सन्देश
(7)

सुन जिसे भव जाता है भूल।
स्वर्ग की सरस सुधा का स्वाद।
भरित मिलता है किसमें भूरि।
भारती-वीणा का वह नाद॥1॥

सुन जिसे मति होती है मुग्ध।
उमग नर्त्तन त्याग।
विपुल पुलकित बनती है भक्ति।
मिला किसमें वह अनुपम राग॥2॥

सुन पड़ा जिसमें अनहद नाद।
हुआ जिसमें समाधिक-धन-गीत।
सुरति है जिसकी सहज विभूति।
मिला किसमें वह श्रुति-संगीत॥3॥

रूप किसका है भव-अनुराग।
लोक-हित-व्रत है किसका वेश।
सुर-विटप-सदृश फलद है कौन।
भूत-हित-पूत सत्य-सन्देश॥4॥