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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ६

कभी रखना न मैल दिल में।
चलाना कभी नहीं चोटें।
क्यों न टोटा पर टोटा हो।
पर गला कभी नहीं घोटें॥3॥

काटना जड़ बुराइयों की।
बदी को धाता बता देना।
चाल चल-चल या छल करके।
कुछ किसी का न छीन लेना॥4॥

डराना बेजा धामकाना।
सताना डाँटे बतलाना।
खिजाना साँसत कर हँसना।

दूसरों का दिल दहलाना॥5॥
बुरा है, इसीलिए इनसे।
सदा ही बच करके रहना।
बु भावों की लहरों में।
भूलकर भी न कभी बहना॥6॥

समझना यह, जिन बातों का।
हमें है दुख होता रहता।
सुने, वैसी ही बातों को।
विवश हो कोई है सहता॥7॥

सोचना, यह, दिल का छिलना।
कपट का जाल बिछा देना।
बहँकना मनमाना करना।
बलाएँ हैं सिर पर लेना॥8॥

जानना यह, काँटे बोना।
कुढ़ाना दे-देकर ताना।
कलेजा पत्थर का करना।
बेतरह है मुँह की खाना॥9॥

मूसना माल न औरों का।
चूसना लहू न लोगों का।
बाँधाकर कमर दूर करना।
देश के सा रोगों का॥10॥

खोलना आँखें अंधो की।
राह भूलों को बतलाना।
समझना सब जग को अपना।
काम पड़ गये काम आना॥11॥

बड़ाई सदा बड़ों की रख।
कहे पर कहा काम करना।
जाति के सिरमौरों की सुन।
समय पर उनका दम भरना॥12॥

भागना झूठी बातों से।
धाँधाली से बचते रहना।
कभी जो कुछ कहना हो तो।
सँभल करके उसको कहना॥13॥

बुराई सदा बुराई है।
भलाई को न भूल जाना।
भले का सदा भला होगा।
यह समझना औ' समझाना॥14॥

जन्तुओं के सुख-दुख को भी।
मानना निज सुख-दुख-ऐसा।
सभी जीवों के जी को भी।
जानना अपने जी-जैसा॥15॥

ह पत्तो की हरियाली।
फूल का खिलना कुम्हलाना।
देखकर, आँखोंवाले वन।
दया उनपर भी दिखलाना16॥

भले कामों के करने में।
न बनना कसर दिखा कच्चा।
भाव बच्चों-जैसा रखना।
सत्य का है स्वरूप सच्चा॥17॥

(16)

शार्दूल-विक्रीडित

जो हो सात्तिवकता भरी न उसमें, जो हो नहीं दिव्यता।
जो हो बोधक नहीं पूत रुचि का, जो हो नहीं शुध्द श्री।
तो है व्यर्थ, प्रवंचना-भरित है, है र्धात्ताता चिद्द ही।
होवे भाल विशाल का तिलक जो सत्यावलम्बी नहीं॥1॥

तो क्या है वह लालिमा तिलक की जो भक्तिरक्ता नहीं।
तो क्या है वह श्वेतता न जिसमें है सात्तिवकी सिक्तता।
खाएँ रमणीय, कान्त रचना, आकार की मंजुता।
तो क्या है उनमें नहीं यदि लसी सत्यादृता पूतता॥2॥

नाना योग-क्रिया-कलाप-विधिक से आराधाना इष्ट की।
पूजा-पाठ-व्रतोपवास-जप की यज्ञादि की योजना।
देवोपासन मन्दिरादि रचना पुण्यांग की पूत्तिकयाँ।
तो क्या हैं यदि साधना-नियम में है सत्य-सत्ता नहीं॥3॥

होती हैं सब सिध्दियाँ करगता अंगीकृता ऋध्दियाँ।
जाती है बन सेविका सफलता सद्वृत्तिक-उद्बोधिकता।
है आज्ञा मतिमानता मनुजता ओजस्विता मानती।
होगी क्यों ऋत कल्पना न उसकी जो सत्य-संकल्प है॥4॥

जो है ज्ञान-निधन कष्ट उसको देगी न अज्ञानता।
जो है लोभ-विहीन तृप्त उसको लेगी न लिप्सा लुभा।
मोहेगी न विमुक्त मुक्तिरत को मुक्तावली-मालिका।
होवेगा वह क्यों असत्य प्रतिभू जो सत्य-सर्वस्व है॥5॥