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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - ४

संकटों के संहारनिमित्त।
किए जाते हैं जितने कर्म।
पुण्य के उपकारक उपकरण।
जिन्हें माना जाता है धर्म॥7॥

भाव वे जो होते हैं सुखित।
दीन-दुखियों को दान दिला।
सबों में अवलोके दृग खोल।
मृत्यु का भय प्रतिबिंबित मिला॥8॥

काल है बहुत बड़ा विकराल।
हो सका उसका कभी न अन्त।
बंक भुकृटी उसकी अवलोक।
दैव बनता है महा दुरन्त॥9॥

बहाता है वह हो-हो कुपित।
जग-दृगों से जितनी जलधार।
कँपाता है वह जितने हृदय।
बहु व्यथाएँ दे बारम्बार॥10॥

अचानक जितनों पर सब काल।
किया करता है वह पवि-पात।
मचाता रहता है जी खोल।
जगत में वह जितना उत्पात॥11॥

कर सका है उतना कब कौन।
हो सका कब उसका अनुमान।
भयंकर ऐसा है यह रोग।
नहीं जिसका हो सका निदान॥12॥

मरण-भय का ही है परिणाम।
विश्व का प्रबल निराशावाद।
श्रवणगत होता है सब ओर।
उर कँपाकर जिसका गुरु नाद॥13॥

क्षणिकता जीवन का अवलोक।
बन गया है असार संसार।
कहाँ है ठीक-ठीक बज रहा।
आज आशा-तन्त्री का तार॥14॥

विरागी जन के कुछ साहित्य।
सुनाते हैं वह निर्मम राग।
बना जिससे बहु जीवन व्यर्थ।
ग्रहण कर महा अवांछित त्याग॥15॥

मृत्यु के पंजे में पड़ गये।
छूटता है सारा संसार
मिटा करता है वह व्यक्तित्व।
नहीं मिल पाता जो दो बार॥16॥

रही जो हृदयेश्वरी सदैव।
प्रीति की मूर्ति जो गयी कही।
कलेजे के टुकड़े जो बने।
ऑंख की पुतली जो कि रही॥17॥

देखने को जिनकी प्रिय झलक।
ललक सहती न पलक की ओट।
अलग जिनका होना अवलोक।
लगन को लग जाती थी चोट॥18॥

बिना देखे जिनका वर वदन।
नहीं चित को मिलता था चैन।
विलोके जिनका दिव्य स्वरूप।
विमोहित होता रहता मैन॥19॥

पिपासित ऑंखें रहकर खुली।
ताकती रहतीं जिनकी राह।
अदर्शन से जिनके बन विकल।
बहुत चंचल होती थी चाह॥20॥

इन प्रणय-रस-सिक्तों का साथ।
जो छुड़ा देता है तत्काल।
कुछ दिनों नहीं, सदा के लिए।
काल वह है, कितना विकराल॥21॥

डाल पाए उतना न प्रभाव।
प्रलय के गा-गाकर बहु गीत।
लोग जितने कि प्रभावित हुए।
मरण-वृतों से हो भयभीत॥22॥

(7)
मृत्यु-आतंक

तब क्यों नहीं ऑंख खुलती है।
होश क्यों नहीं आता।
जब कि पलक मारते काल का।
रंग पलट है जाता।
तब किसलिए अधमता करते
नहीं धाड़कती छाती।
जब घन की छाया समान है
काया क्षणिक कहाती॥1॥

तब क्यों लोग दूसरों को।
दुख देते नहीं अघाते।
जब जीवन के दिवस।
भोर के ता हैं बन जाते।
तब किसलिए अहित की धारा।
हृदयों में है बहती।
जब बहु छिद्रवान घट-जल-सम।
आयु छीजती रहती॥2॥

तब क्यों पीड़ित क उरों को।
कह नितान्त कटु वाणी।
जब बालू की भीत के सदृश
पतनशील है प्राणी।
तब किसलिए किसी का कोई
क्यों है गला दबाता।
ओले के समान जब जन-तन
है गलता दिखलाता॥3॥

तब क्यों बार-बार कल-छल कर
है बलवान कहाता।
जब बुलबुले-समान बात कहते
है मनुज बिलाता।
उथल-पुथल किसलिए मचाता है
तब कोई पल-पल।
चलदल-दल-गत सलिल-बिन्दु-सम।
जब जीवन है चंचल॥4॥