रत्नाकर की रत्नाकरता
(3)
वह कमल कहाँ पर मिलता।
जो धाता का है धाता।
पाता वह वास कहाँ पर।
जो सब जग का है पाता॥1॥
भव-विजयी रव-परिपूरित।
प्रिय कंबु कहाँ पा जाते।
रमणी रमणीय रमापति।
कौस्तुभ-मणि किससे पाते॥2॥
जिससे शिव-शक्ति-महत्ता।
बुध भव को हैं बतलाते।
वह गरल भयंकर किससे।
कैसे अभयंकर पाते॥3॥
जिसकी अनुपम सितता से।
सित घन विलसित बन जाते।
वृन्दारक-वन्दित किससे।
ऐरावत-सा गज पाते॥4॥
है अरुण अरुणता-द्वारा।
जिसकी कनकाभा साजी।
दिनपति कैसे पा सकते।
वह अप्रतिहत-गति वाजी॥5॥
जिसके कर वसुधा पर भी।
हैं सदा सुधा बरसाते।
शिव-सहित सर्व सुर किससे।
उस सुधा-सदन को पाते॥6॥
है सदा छलकता रहता।
किसके यौवन का प्यारेला।
सब सुर कैसे पा सकते।
रंभा-सी सुरपुर-बाला॥7॥
प्रति-दिन किसमें मिल पाता।
पुरहूत-चाप छविवाला।
पावस - तन - रत्न - विभूषण।
घन-कंठ मंजु मणि-माला॥8॥
भव - सदाचार - सुमनावलि।
जिसको पाकर है खिलती।
जो सुर को सुर है करती।
वह सुरा कहाँ पर मिलती॥9॥
कामना सदा रहती है।
जिसके प्रिय पय की प्यारेसी।
उस कामधेनु को पाते।
क्यों अमरावती-निवासी॥10॥
मन-वांछित फल पाते हैं।
सुर-वृन्द सर्वदा जिससे।
नन्दन-कानन को मिलता।
वह कलित कल्पतरु किससे॥11॥
सुर-असुर-निकर को कैसे।
मोहनी मूर्ति दिखलाती।
सब अमर-वृन्द को किससे।
अभिलषित सुधा मिल पाती॥12॥
होता निदान रोगों का।
क्यों भोगों के मुख खिलते।
किसके सुअंक से भव को।
धान्वन्तरि-से सुत मिलते॥13॥
क्यों महि का पानी रहता।
कैसे बहता रस-सोता।
तो जीवन जीव न पाते।
जो जग में जलधिक न होता॥14॥
समुद्र का संताप
(4)
क्यों धारती पर पड़े हुए तुम।
सदा तड़पते रहते हो।
क्यों रह-रहकर चिल्लाते हो।
क्यों आकुल बन बहते हो॥1॥
बतला दो क्यों चल दलदल-सा।
हृदय तुम्हारा हिलता है।
बार-बार कँपने से क्यों।
छुटकारा तुम्हें न मिलता है॥2॥
डूब-डूब करके ऑंसू में।
क्यों तुम कलपा करते हो।
वाष्प-समूह-विमोचन कर
क्यों प्रति-दिन आहें भरते हो॥3॥
कौन-सी जलन है वह जिससे।
जलते सदा दिखाते हो।
बहुत क्षुभित होते हो तुम।
क्यों परम कुपित बन पाते हो॥4॥
छिने चतुर्दश रत्न इसी से।
विपुल व्यथा क्या होती है।
उसकी सुधिक वेदनामयी बन।
बिलख-बिलख क्या रोती है॥5॥
हो मर्यादाशील; किन्तु है।
प्रलयंकरी प्रबल धारा।
कलित ललित लीलामय हो; पर
सलिल तुम्हारा है खारा॥6॥
कला-कान्त है परम प्रिय सुअन।
किन्तु नितान्त कलंकित है।
क्षय-रुज-ग्रसित प्रचंड राहु से।
त्रासित प्रवंचित शंकित है॥7॥
सकल-लोकपति-अंक-शायिनी।
रमा-समा दुहिता प्यारी।
है चंचला उलूक-वाहना।
विपुल विलासमयी नारी॥8॥
जिस घन के तुम पूज्य पिता हो।
जिसने सरस हृदय पाया।
जिससे सलिल मिले रहती है।
हरी-भरी महि की काया॥9॥
एक-एक रजकण तक जिससे।
सतत सिक्त हो पाता है।
वह बहुधा कर पवि-प्रहार।
तुम पर ओले बरसाता है॥10॥
क्या ये सारी मर्म-वेधिकनी।
बातें व्यथित बनाती हैं।
विविध रूप धारकर तुमको।
दुख देतीं, बहुत सताती हैं॥11॥
सदा तुम्हा अन्तस्तल में।
हैं विपत्तिक-भंजन रहते।
नहीं समझ में आता कैसे।
तब विपत्तिक वे हैं सहते॥12॥
लाखों बरस कमल-दल पर।
तुमने कमलासन को पाला।
अहह उन्होंने तुमको कैसे।
ऐसे संकट में डाला॥13॥
नहीं सोच सकता कुछ कोई।
क्यों न विबुध हो कैसा ही।
यह संसार रहा रहस्यमय।
सदा रहेगा ऐसा ही॥14॥