बाग़ के इतराफ़ में
परिन्दे चहकते, पत्ते शोर करते हैं
मसामों को खोलती
हवा चल रही है
रुक-रुक कर
फूली हुई साँसों
और कपड़ों की सरसराहटों में
रस भरे होंटों से
दुनिया भर की बातें
ज़मीन पर गिरती
और फूल बन जाती हैं
खुले घर की घुटन की गिरह खोलने
सैर को निकलता हूँ
उम्र भर की आवारा-ख़िरामी का बोझ उठाए
ख़ुद को घसीटते हुए
नँगे पाँव घास पर चलता हूँ
ताकि वो देख लिया जाए
जो अभी देखा जा सकता है !
सुर्ख़ी-माइल भुरभुरी मिटटी की
नीम हमवार रहगुज़ार पर
काहिली से क़दम उठाते
बे-ज़ारी से आँखें घुमाते हुए
चलता हूँ, चले बग़ैर
और किसी झाड़ी में छुपा हुआ चीता
अपनी चमकदार आँखें खोलता
मेरी जानिब देखता
और शाम की तमानियत में ऊँघ जाता है
किसी और दिन
पूरी तरह जाग जाने के लिए