एक
क्या सोचते थे पिता
उन दिनों
जब वह देर रात गए घर आते
और बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ सिगरेट के धुएँ से घिर जाया करते
क्या वे दिन भर के कामों का लेखा-जोखा करते
और महीने के तमाम ख़र्चों का हिसाब?
क्या अपने बॉस से झड़प की बात सोचते
या उनसे लोहा लेने और जीत जाने के स्वप्न देखा करते
क्या वह आने वाले दिनों से डरते थे
या अपने गुज़रे दिनों को याद करते
अपनी ग़लतियों को विचारते
मौन हो जाया करते
क्या वह अपनी उन प्रेमिकाओं को याद करते
जो उनसे दूर किसी और के बच्चे पाल रही थीं
या वह गुरुदत्त, 'पाथेर पांचाली' और इमरजेंसी की बात सोचते थे
या उनकी चिंताएँ दार्शनिक क़िस्म की थीं
छोटे-छोटे संघर्ष थे उनके या बड़ी-बड़ी चिंताएँ
कितने स्तरों का संवाद वह ख़ुद से करते थे?
क्या वे किसी और रास्ते
किसी और जीवन, किसी और तलाश में जाते-जाते रुक गए और लौट आए
या बस वह वही थे जो होना चाहते थे और नज़र आते थे
जो भी हो—
अपनी इन्हीं चिंताओं और समय के सतहीपन से जूझते
महीने की पहली तारीख़ को वह मिठाइयाँ लाते
और हमें कहानियाँ सुनाते रहे
उन्होने मुझे जूते पॉलिश करना कपड़े प्रेस करना
और बैडमिंटन खेलना भी सिखाया
पिता ने इस तरह जीवन दिया हमें।
दो
पिता के कंधों में दर्द रहता था उन दिनों
वह अक्सर झुक कर चलते और चलते-चलते रुक जाते
इस्त्री किए कुर्ते के काज में कोई बटन न होता
होता भी तो वे उसे लगाना भूल जाते
वे शादियों में, मिलने-जुलने वाले में, सिनेमा पिकनिक भी नहीं जाते उन दिनों
और अगर जाते तो अपना सबसे चमकता सुलझा चेहरा लिए जाते
और वापस आकर फिर से उसे उतार तहाकर रख देते
बेटियाँ ब्याहनी थीं उन्हें
बेटियों की चिंता उन्हें दूसरे पिताओं की दुनिया में ले गई
जहाँ झुकी कंधों वाले कई पिता थे
वे हर तरह के थे
उनमें वे पिता भी थे जिनकी आवाज़ों की कड़क अब मुलायम होकर क्षीण होने लगी थी
कुछ और थे जो अपनी बेटियों को अपनी पलकों में थामे रहते और वे भी
जिनकी बेटियाँ उन्हें शर्मसार करती थीं
अपने-अपने घरों से निर्वासित वे सारे पिता
अपनी बेटियों की छाया लिए कई सीढ़ियों तक जाते और लौट आते
वे कविता तक नहीं आ पाते थे उन दिनों
ये सभी पिता अपने अपने पिताओं की दुनिया से आए थे
जहाँ बेटियाँ अक्सर भीतरी कमरों में रहती थीं
उनकी आवाज़ दालान तक नहीं आती थी
पिता उन दिनों पिता नहीं रह जाते थे
वे कमज़ोर और अकेले इंसान में तब्दील हो जाते
जिनके चेहरे पर कई दरवाज़े बंद हो जाया करते
वे बेटियों की दुनिया में भी न रह पाते
न तो वे माँओं की तरह ऊँचे रह पाते
बहसों में उनके बदले कोई बयान न देता
नारीवादी जलसों में पिता पीछे रह जाते
माँओं का दुख तो सब जानते
पिता बरबस ही महानायक क़रार दिए जाते
उन दिनों कई बार मैं सोचती
पिताओं को बस इंसान हो जाना चाहिए
फिर वे अपने पिताओं की दुनिया से निकल बेटियों की दुनिया में आ पाते...