वे समझने लगीं हैं अग्नि और अग्नि का अंतर
वे दान कर रहीं हैं अंगूठा पिता के लिये
वे देखती रहीं हैं माँओं के सिंधोरे पिता की अर्थी पर
अग्नि की साक्षी में विगलित देह पिता की
पात-पात झरता उद्दीपन
रोम-रोम पिघलता ताप
पिता... पिता नहीं, जल हो गये।
पिता... पिता नहीं, वायु हो गये।
थिर स्तंभन में कहीं बिंधा है सिर एकलव्य का।