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पिशाच / नेहा नरुका

एक

वह हमेशा बोलता — ‘मैं इंसान नहीं पिशाच हूं’
और मैं इसे मानती किसी इंसान की ईमानदार अभिव्यक्ति खुद के बारे में
मैं इसे मानती किसी नंगे शासक को नंगा कहने का साहस
मैं मानती हर व्यक्ति अंदर से पिशाच है
मैं मानती नर पिशाच है और कुछ मामलों में मादा से बड़ा पिशाच भी

पिशाच के बारे में कई कथाएं सुन रखी थीं मैंने
पर उन कथाओं पर कभी यकीन नहीं हुआ उस तरह
जिस तरह उनमें वर्णन होता था पिशाच का
मसलन पिशाच सिर्फ रात में आता है, खून पीता है और सुबह होते ही गायब !
मैंने उसे खून पीते हुए तो नहीं, हां गोश्त खाते हुए जरूर देखा

वह गोश्त खाता और मैं इसे मानती पेट की जरूरत
मैं फिर वकालत करती कि गोश्त जरूरी है इंसान के विकास के लिए
पर यह गोश्त किसका हो मुर्गे का, बकरे का या इंसान का
यह सवाल अक्सर बंदूक की तरह दनदनाता मेरे दिमाग में

दो

एक दिन सुबह होते ही वह गायब हो गया
मैंने इसे माना किसी चिंतक का एकाएक मौन हो जाना
गोया यह भी एक जरूरी परिघटना हो सभ्यता के इतिहास की तरह

तीन

वह पिशाच ही था इनसान के भेष में
और जिस सच की वह बात करता था
वह इनसान की नहीं, पिशाच की ईमानदार अभिव्यक्ति थी
इसका सीधा-सा अर्थ था पिशाच ज्यादा ईमानदार है इनसान के बनिस्बत

दरअसल, इनसान का जो दिमाग है वह एक लबादा है
इस लबादे के भीतर है चालाकी
यही चालाकी उसे सिखाती है सत्ता का प्रपंच
इसके प्रयोग से ही वह गढ़ता है गुलाम
आदम के इस गुलाम और पिशाच के उस गोश्त में मुझे कुछ समानताएं दिखीं
जैसे दोनों खुराक हैं, शासक और पिशाच की
पर तब तक ही जब तक गुलाम और गोश्त दोनों का रंग सफेद है