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पीर पूजा / सुशील ‘सायक’

अजब है यह पीर
जो हरता है पीर
जन की
इनके मन की
न सूरत
न मूरत
न ढ़ोंग, न दिखावा
न मन का छलावा
बस रक्तिम भाल
पेड़ की छाल पर
पास रखी हंडियों पर
अनगढ़ कलियाए पत्थरों पर
चढ़ रहा है चढ़ावा
रोग, सोग
अक्रय भोग
जिसमें मूली हैं मूड़ी हैं
चादर हैं
कुछ चूड़ी हैं
सिंदूर है जो सुहाग है
दीया घर की आग है
नदी नालों का जल
यही भविष्य है कल
पूज रहे युगों से
ये भोले-भाले जन
कर-कर निर्धन स्तवन
आत्मिक पुकार करता स्वीकार
यह निराकार का रूप साकार
लिए चली है भर-भर थाल
घर से समिधा निकाल
लून-आटा
बटा-बाँटा
शक्कर की डलिया
चढ़ाएँ चली हंडियाँ
नत-नत माथ
जोड़े हाथ
सकाल-सँझा सकारती
मन से पुकारती
दातार देख मेरी देह
दे अपना स्नेह
भूख का कर अंत
खिले तेरा कली-कंत
हम भी साखी हो
पाप पुण्य भागी हो
यही करे याचना
जिसमे मन की प्रार्थना
साड़ी का पल्लू संभालती
चल पड़ती ले प्रसाद
कुकुरों को डालती
न ढोंग
न पोंग
न ढ़ोल
न डंडा
बस मन चंगा
तो कठौती में गंगा का चरितार्थ
यह अनूठा पीर परमार्थ
जिसके दर्शन कर प्रत्यक्ष
कहने को हूँ विवश
शांत अब पाखी है
जिसका मेरा मन साखी हैll