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सिंदूरी केमिल्या बिखरे
गली में ,
मन करता है फुदकूँ
फूलों पर !
फूलों की झाडी
कलियों से लदी
उमगती है हर्षोल्लास से !
निहार कर नीलाकाश को
ज़ेल्कोवा वृक्ष के पार ,
पत्तों के पंख करते प्रस्फुरण
महसूस करती हूँ स्फूर्ति
वृक्ष के सशक्त स्कंध से !
आह गमन पुलकित !
सुनते हो क्या प्रकृति को ?
फूलों के स्वर ,
वृक्षों के प्रस्फुरण?
पहले रविवार की सुबह ,
बसंत ऋतु में
जाते समय गिरिजाघर!
अनुवादक: मंजुला सक्सेना