पहाड़ी की तलहटी में स्थित उपत्यका
उसी पहाड़ी के ऊपर विद्यायमान आपत्यका से एक अदृश्य सा रिश्ता बना लेती है
जहाँ दिवाकर रश्मियाँ फैलाकर
उस दूरी को एक पुल सा बनाकर बाँध देता है
जो दोनों के मध्य अपारदर्शक संवाद बन जाता है
हृदय में प्रेम का विहान ठीक वैसे ही होता है
जैसे सुकेशी घटते बढ़ते पूर्ण हो चमकने लगता है
बारिश भी तो सूखी मिट्टी में रिस रिस कर उसे आकार देने लायक बना देती है
प्रेम भी हृदय के धरातल पर रिस कर उसे आकार में ढाल लेता है