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पूर्वाभास / केदारनाथ सिंह

धूप चिड़चिड़ी, हवा बेहया,
दिन मटमैला
मौसम पर रंग चढ़ा फागुनी,
शिशिर टूटते
पत्तों में टूटा, पलाश वन
ज्यों फैला
एक उदासी का नभ
शोले चटक फूटते

जिस में अरमानों से गूँजा
हिया — आएगा
कल बसन्त, मन के भावों के
गीतकार-सा
गा जाएगा सबका कुछ-कुछ,
मौन छाएगा
गन्ध स्वरों से, गुड़ की गमक
हवा को सरसा

जाती जैसे पूस माह में,
नदिया होंगीं
व्यक्त तटों की हरियाली में
खिल, उघड़ा-सा
कहीं न दीखेगा जीवन,
लगते जो योगी
वे अनुभूति-पके तरु फूटेंगे,
जकड़ा-सा

तब भी क्या चुप रह जाएगा
प्यार हमारा ?
कुछ न कहेगा क्या वसन्त का
सन्ध्या-तारा ?