ज़िन्दगी भाग्य के पन्नों पर मुझे घिसती रही
वक्त कटर बन अपनी धार से छीलता रहा
नाप पट्टी मेरी सीमा रेखायें बाँधती रही
रबर मेरे किये को मिटाता रहा
समाज में लेखनी रूप में पूज्य थी मैं
घर-पेन्सिल बॉक्स के सदस्यों द्वारा शोषित
पेन्सिल हूँ या भारतीय स्त्री
सोचती हूँ अक्सर