|
बहुत उदास है पैंसिल...
दूर नहीं रही मुझ से कभी जो
मेरी सब कविताओं की माँ है वो
अब घिस गई...
पैंसिल ! ओ पैंसिल !
मेरे लिए घिस दिया तूने अपना शरीर
सारा जीवन चाकू की झेली तूने पीर
मरने से पहले भी हुई न अधीर
आत्मत्यागी है तू जैसे कोई फकीर
ओ पैंसिल मेरी !
मन में है मेरे विचार कुछ ऎसा
कि बन जाऊँ मैं बिल्कुल तुझ जैसा ।
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय