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पैगाम / नवनीत नीरव

पैगाम
मुद्दतों रही साथ मिरे पर मिली नहीं कभी,
दिल्लगी बड़ी जालिम, किताबों में दबी रही.

हर्फ़-हर्फ़ सजाया था जिसे कसीदाकारी से,
सफ़ेद सफ़हे की इबारत मटमैली सी मिली.

वो दर्द वो जूनून, मयस्सर नहीं आजकल,
अपनी बयानबाजियां, बस तंज ही लगीं .

पैगाम वही ताजा जो महफूज रहें जेहन में,
दिल तलक न पहुंचे दर्द तो कब्र भली सही.

इंसान हुआ नादान तो परेशां फिरे हर वक्त,
मौसमों के आने-जाने में कोई दर्द कम नहीं.