आँगन में लगे
ओ चाँदनी के पेड़!
सफेद फूलों से लदे हुए
सदा एक आकर्षक मुस्कान लिये
चेतना और सौंदर्य के प्रतिमान
मुझे सदा से ही सम्मोहित करते तुम...
शीतल पवन से
एक सिहरन-सी उठती है
तुम्हारे भी तन में...
तारों भरी रात में जुगनू को
पा जाने की चाह उठती है
तुम्हारे भी मन में
चाँदनी रात में उस चाँद को
देखते रहते टकटकी बाँधे...
अपने शुभ्र धवल फूलों से
कीट पतंगों को रिझाते तुम...
भोर होते ही
सूरज के स्वागत में
बिछा देते फूलों की चादर
और अपनी टहनियों पर बैठे
पंछियों से मनुहार कर
कि छेड दे भोर का कोई राग
तल्लीन हो उस राग में
संगीत स्वर लहरियों का
आनंद लेते झूमते तुम
बसंत आते ही
नये हरे पत्तों की चादर
ओढ़ इठलाते,
आनंदित हो हर्षाते
नवसृजन को दर्शाते
और पतझड़ में अपने
पीले पत्ते झाड़ बीती बातें भुलाते
कभी सुख तो कभी दु: ख सें
पत्र नयन की कोरें भिगोते तुम
तुम भी स्थिर हो,
वर्षों से एक ही जगह अपनी
जड़ें जमाए।
लेकिन...
विचारों और भावनाओं
में चैतन्य और गहनता लिए...!
स्थिरता और अचलता
सुख-आनंद-उत्साह-चाह का
पैमाना या सीमा कतई नहीं
यह हरदम मुझे सिखाते तुम...