Last modified on 11 जनवरी 2021, at 00:44

पैमाने / शचीन्द्र आर्य

क्या हम अपनी उदासी को किसी तरह माप सकते हैं?
या कुछ भी, जिसे मन करे?

कहीं कोई क्या ऐसा होगा, जो हर चीज़ के लिए ऐसे पैमाने बना पाया होगा?
क्या वह हर भाव, क्षण, मनः स्थिति, घटना, अनुभूति,
उसके गुज़र जाने के बाद पैदा हुई रिक्तता, अतीत, भविष्य, कल्पना,
ईर्ष्या, कुंठा, भय, स्वप्न, गीत, स्वर, जंगल, सड़क, मिट्टी, हवा, स्पर्श
सबके लिए वह कुछ न कुछ तय करके गया होगा?

अपने अंदर देखता हूँ तो लगता है, बीतते दिन में आती शाम
और उसे अपने अंदर समा लेती रात ज़रूर कुछ बता जाती होगी।
मुझे भी वह सब जानना है।

लेकिन यह कैसे संभव होगा?

क्या यह हो सकता है, हम किसी भाषा के
सीमित शब्दों में असीमित संभावनाओं को समेटते चले जाएँ?

कभी लगता, इनके बजाय अगर वह कुछ युक्तियाँ बता सके, तो बेहतर होगा।
मैं ऐसे प्रेम करना चाहता हूँ, जिसे मैं भी ख़ुद न पहचान पाऊँ।
जिससे करूँ, वह मुझमें खुलता बंद होता रहे।
यह पानी और नदी जैसे होगा शायद। नहीं तो पेड़ और उसकी परछाईं जैसा।
चाहता हूँ, ऐसी ईर्ष्या जिससे करूँ,
जिसे वह उसे मेरा अनुराग समझे, लेकिन तह में यह भाव
किसी कुंठा की तरह मन में बनी हुई गाँठ की तरह उसे नज़र न आए।

इसी में कुछ ऐसे सपनों तक पहुँच जाना चाहता हूँ,
जो सपनों की तरह नहीं ज़िंदगी के विस्तार की तरह लगें।
उनमें रंग बिल्कुल गीले हो। उनसे मेरे हाथ रँग जाएँ।

शायद अब आप कुछ-कुछ
उन नए पैमानों की तासीर तक पहुँच पा रहे होंगे
और यह भी समझ पा रहे होंगे कि उनकी मुझे ज़रूरत क्यों है।
मैं अपनी सारी घृणा,
ईर्ष्या और सारे अप्रेम के साथ कुछ-कुछ ऐसा हो जाना चाहता हूँ।