पौढ़ी हुती पलँगा पर मैं निसि ज्ञानरु ध्यान पिया मन लाए ।
लागि गई पलकैँ पलसोँ पल लागत ही पल मे पिय आए ।
ज्योँ ही उठी उनके मिलिबे कँह जागि परी पिय पास न आए ।
मीरन और तो सोय कै खोवत हौँ सखि प्रीतम जागि गँवाए ।
मीर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।