मैं प्रतिश्रुत हूँ-
अपने क्त की लाली के प्रति,
उषा की सरस गुलाली के प्रति,
धरती की ओस-जड़ी हरियाली के प्रति!
आदमी के सलोने सपने और खुशहाली के प्रति-
मैं प्रतिश्रुत हूँ!
मैं प्रतिश्रुत हूँ-
अपनी पहुँच की प्राण-सीमाओं तक,
जहाँ तक जल-लहरें, विसर्जनपूर्वक,
रेत की सूखी पसलियाँ-मात्र शेष रह जाती हैं!
अगरबत्ती और दीये की कांति-किरणें-
धूम्रपटलियाँ-मात्र शेष रह जाती हैं!
अपनी काया के पंख की-
जेठ की जलती रेत में असहाय टूटन-मुड़न तक,
अपनी आस्था-ज्वलित प्राण-तन्त्री के
अन्तिम गुंजन, अन्तिम मूर्च्छना, अन्तिम स्पन्दन तक
मैं प्रतिश्रुत हूँ!
मानव-अस्तित्व को चिलचिलाना है!
पीट कर, रौंद कर, मथ कर, सँवार कर-
बेपेंदी की-सी किरमिची जीवन-मिट्टी में से कंचन-लौ जगाना है!
मानव की आँखों का सलोना आदिम सपना
सत्य बनाना है!
हाँ, हाँ, मैं-
प्रतिश्रुत हूँ! प्रतिश्रुत हूँ!
1987