अगर यह भी तय हो जाए कि अब से मूर्तियाँ ही तोड़ी जाएँगी दंगों में
तो मैं इस तोड़ फोड़ का समर्थन करूँगा।
कम से कम कोई औरत बच तो जाएगी बलात्कार से।
नहीं चीरा जाएगा किसी गर्भवती का पेट।
मैं तो कहता हूँ कि मूर्ति तोड़ने वालों को सरकार द्वारा वज़ीफ़ा भी दिया जाए।
कम से कम कोई सिर्फ़ इसलिए मरने से तो बच जाएगा
कि दंगाईयों के धर्म से उनका धर्म मेल नहीं खाता।
इसे रोज़गार की तरह देखा जाना चाहिए।
कम से कम सभी धर्म के लोग सामान रूप से जुड़ तो पाएंगे इस राष्ट्रीय उत्सव में।
तब किसी दलित पर किसी की नज़र नहीं पड़ेगी
और ऐसे में कोई दलित बिना किसी बाधा के मूँछ भी रख पाएगा
और घोड़ी पर भी चढ़ पाएगा।
प्रधानमन्त्री जी, वैसे तो आप जनता की बात सुनते नहीं हैं।
पर यकीन मानिए मैं मुकेश अम्बानी बोल रहा हूँ।