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प्रयाण-गीत / रामगोपाल 'रुद्र'

बढ़े चलो जवान तुम, बढ़े चलो, बढ़े चलो।

खड़ा विकट पहाड़ है,
मृगेन्‍द्र की दहाड़ है,
प्रचण्ड शैल-शैल पर
प्रपात का प्रहार है;
परन्‍तु शृंग-शृंग पर
अडिग अभंग अंघ्रि धर
चढ़े चलो जवान तुम, चढ़े चलो, चढ़े चलो।

कि लक्ष-लक्ष विघ्ननदल
घिरे प्रलय-प्रबल-चपल,
रुके न तुम्हारे चरण
नवीन-कल्पना-सबल;
उसी प्रकार आधि से
अनन्‍त विघ्न-व्याधि से
लड़े चलो जवान तुम, लड़े चलो, लड़े चलो।

घिरी कभी विकट अमा,
सशंक हो उठी क्षमा,
अशंक तुम चले, चली
चकित मरुत्परिक्रमा;
उसी प्रकार, शक्‍ति-रथ
बढ़ा प्रबुद्ध, मुक्‍तिपथ
गढ़े चलो जवान तुम, गढ़े चलो, गढ़े चलो।

अनभ्र वज्रपात हो,
उदग्र चक्रवात हो,
अनल उगल रहे शिखर,
कुहान्‍ध आर्त्‍त प्रात हो,
परन्‍तु वज्रदेह-से,
अजेय गेह-गेह से
कढ़े चलो जवान तुम, कढ़े चलो, कढ़े चलो।

स्वतन्‍त्रताप्‍ति के लिए,
कलुष-समाप्‍ति के लिए,
समाज में सुनीति की
अखण्ड व्याप्‍ति के लिए,
ध्रुवैक लक्ष्य-अक्ष पर
अमोघ राष्‍ट्र-रश्मि-शर
जड़े चलो जवान तुम, जड़े चलो, जड़े चलो।