सच कहना चाहती हूँ तुमसे
झूठ बोला नहीं जाता
पर तालू से चिपका सच छूटने को तैयार नहीं।
बहुत पहले
तुमसे भी पहले
चाहा था मुझे उसने।
पर तब
चाहत की पहचान न थी मुझको।
उसकी हर आह, तड़प
मज़ाकिया-सी लगती थी।
पर आज
वही तड़प
तड़पा जाती है मुझे
आरी-सी चीरती है वह नज़र
भीतर तक
लहूलुहान हो जाती हूँ मैं।
क्यों न तब समझ पाई
खुद को
प्यार तुम्हें भी बहुत करती हूँ
अपने से भी ज़्यादा
तब वह क्या था?