Last modified on 23 मार्च 2019, at 16:10

प्रस्तुत / कीर्ति चौधरी

मैं प्रस्तुत हूँ,
इन कई दिनों के चिन्तन और संघर्ष बाद,
यह क्षण जो अब आ पाया है,
उस में बन्धकर मैं प्रस्तुत हूँ,
तुमसे सब कुछ कह देने को ।

वह जो अब तक यूँ छिपा चला आया,
ज्यों सागर तो रत्नाकर ही कहलाता है,
अन्दर क्या है, यह ऊपरवाला क्या जाने ।

मैं प्रस्तुत हूँ,
यह क्षण भी कहीं न खो जाए ।

अभिमान नाम का, पद का भी तो होता है ।
यह कछुए-सी मेरी आत्मा,
पंजे फैला,
असली स्वरूप जो तुम्हें दिखाने को,
उत्सुक हो बैठी है,
क्या जाने अगले क्षण को ही आहट को पा,
सब कुछ अपने में फिर समेट ले झट अन्दर ।

मैं प्रस्तुत हूँ
तुमसे सब कुछ कह देने को ।

इस सागर में तुम मणि-रत्नों की कौन कहे,
कुछ शंख-सीपियाँ भी तो कहीं न पाओगे ।
केवल घोंघे — केवल घोंघे ।
वे जो साधारण नदियों, तालाबों, धाराओं में भी
पाए जाते हैं ।

मैं प्रस्तुत हूँ — कह देने को,
मेरे गीतों, मेरी बातों को यहाँ-वहाँ
जो ज़िक्र असाधारणता के हैं दिख जाते,
वे सभी ग़लत ।
सारा जीवन मेरा साधारण ही बीता ।
हर सुबह उठा तो काम-काज दफ़्तर, फ़ाइल
झिड़की-फटकारें, वही-वही कहना-सहना ।

मैंने कोई भी बड़ा दर्द तो सहा नहीं ।
कुछ क्षण भी मुझ सँग बहुत हर्ष तो रहा नहीं ।
जो दृढ़ता-दर्प पंक्तियों में मैंने बान्धा,
वह मुझ में क्या,
मेरी अगली पीढ़ी में भी सम्भाव्य नहीं ।
वह गीत कि जिसका दर्द देखकर,
आँखें सब भर आई थीं,
मुझमें उसकी अनुभूति महज़
घर के झगड़ों से उपजी थी ।

वह अडिग, अविचलित पन्थ-ज्ञान,
जिसके ऊपर
भावुक हृदयों की श्रद्धा उमड़ी-मण्डराई
बस विवश, पराजित, तकिये में मुँह गाड़,
खीजकर लिया गया ।

वे स्थितियाँ जो रोज़ तुम्हारे, इसके, उसके जीवन में,
आती रहतीं,
मेरी भी हैं ।
पर चतुराई तो यह देखो
तुम सब के सब तो सहन कर रहे मौन खड़े
मुझमें क्या ख़ूबी,
किंचित दुख, किंचित सुख पर,
विश्वास-दर्द के गीत बनाकर गाता हूँ ।

कह सकता हूँ
क्या इतनी ही ख़ूबी सब कुछ !
इस बल पर मेरे हर्ष-पीर बड़भागी हैं ?
क्या इसीलिए अव्यक्त मूक रह जाओगे,
ओ मेरे बन्धु-सखा ज्ञानी-संज्ञानी ?

आओ तो मेरे सँग आओ
कुछ और नहीं तो, बस,
चीख़ो ही, चिल्लाओ ।
बेसुरा सही,
बेछन्द सही ।

कम से कम मेरा दर्प हटे
मैं जानूँ तो ।
जिस एक व्यथा से भटका-भटका मैं फिरता
वह तुम में, उस में,
इस-उस में, सभी जगह ।
मैं मानूँ तो —
अभिव्यक्त मुझे करनी है,
जन-मन की वाणी ।

मेरी प्रतिभा यदि कल्याणी
तो दर्द हरे,
सुख-सौख्य भरे,
यही नहीं कि —
अपने
तन के, मन के,
निजी, व्यक्तिगत
दुख-दर्दों में जिए मरे ।