मैं, सदा बंधी रही
रीति के दायरों में
मसोसती मन को,
अभिलाषा होती क्या
जान न पायी कभी
तुम, उन्मुक्त पंछी से
विचरते आशाओं के
आकाश में... फैलाते
पंख, भरते उड़ान ऊँची
तुम्हारा प्रणय
माँगता सामीप्य
चाहता निर्लज्जता,
ढूँढता प्रेयसी
मेनका रंभा सी
मेरा प्रेम, तत्पर केवल
सर्वस्व समर्पण को
मीरा सी प्रेम दीवानगी
राधा सी दर्शन पिपासा
लिये मैं, निकल चली
अब प्रीत निभाने को...