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प्रेम-क़ैद / विमल कुमार

देवी होकर
तुम भी जकड़ी हो बेड़ियों में

यह तो मैंने सोचा भी नहीं था
कि किसी मूर्ति के शरीर में
लिपटी होंगी इस तरह ज़ंजीरें

धृष्टता होगी
यह सोचना भी
तुम अपने प्रेम से मुक्त करो मुझे
तुम तो ख़ुद ही डूबी हो
दुख में
मैं अपने सुख की
क्या करूँ तुमसे उम्मीद ?