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प्रेम-घ / अनिल पुष्कर

तुम
बीते हुए समय के खेल की यादों में खोई हो
एक नन्हे खिलौने से पहली मुलाक़ात वो सादगी और पहला इश्क
खिलौने के साथ बीतीं जागी सोई अनगिनत ख़्वाहिशें, बेसुध रातें
पहला आलिंगन अब भी सुर्ख़लबीं करता है
पहली छुअन अब तक तक रोमांचित कर रही है
नाजुक अहसासों में पहली दफ़ा उसका ख़याल
सपनों तक में रूमानी गीलापन भरता है
एक मीठी लहर धुन में उठती और फिर भीतर कहीं खोई
हर ख़्वाहिश को जैसे मानी मिल गए हों
हर ख़याल को एक हमराज
हर साँस को उसकी क़ीमत

तुम तो समय के साथ बड़ी हो गई
मगर वो खिलौना की अब तक उसी उम्र में जिया
आलमारी में चुप्पी साधे बिलकुल ख़ामोश और बेफ़िक्र ।

अपने भीतर की किवाड़ें खोलूँ जब भी
मैं चाहती हूँ मुस्कुराता हुआ तुम्हें देखूँ
और तुम्हारी उम्र में जाकर फिर-फिर जियूँ ।