प्रेम-पंथ परिहै कहाँ, जियरा को सुख-चैन।
धक-धक करि हियरा कहै, उठि पिय देश चलैन॥
प्रेम पियाला पी छकै, ताका सुनी हवाल।
तिल सम कोश कुबेर को, सुर मणि राई छाल॥
प्रेम-पय को गूढ़ सुख, प्रेमिहिं सकै बताय।
बेदान्ती जानै नहीं, दाँत बाय रहि जाय॥
प्रेम-तत्व अति गूढ़ हैं, बुद्धि न सकै बताय।
पहुँचि न पावै बीच ही, ठढ़ि कपूर लौं जाय॥
बढ़ो आचरज जगत् में, कहिये काहि सुनाय।
वाकी भलो दिखात है, जो चित लेय चुराय॥
तुमहिं बतावत ठीक मैं, प्रेमिन की पहिचान।
दृगन-नीर बरसैं तऊ, मुखड़ा रहा झुरान॥
कैसी दशा वियोग का तुमहिं कहौं समुझाय।
दमयन्ती सीता सती, जान्यो कह्यो न हाय॥
प्रेम पंथ में जो मजा, सो जान्यौ मसूर।
लोग कहैं फाँसी चढ़ी, पहुँचा श्याम हजूर॥
जे नर प्रेमी जनम की, हँसी करत मुसुकाय।
उरपौं, उनको धर्म कहुँ, जग सरि नहिं बहि जाय॥
बेंचन हित मद प्रेम को, जो पिय धरै दुकान।
तो मैं निज नयनन करूँ, वा दर को दरबान॥