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प्रेम-2 / सीत मिश्रा

प्रेम की नई परिभाषा गढ़ी उसने
साथ रहना, सोना, खाना-पीना प्रेम नहीं
दैनिक जीवन का हिस्सा है
बढ़ती उम्र के साथ जिस्म की भी जरुरत होती है
और उसे प्रेम का नाम देना गलत है
जरुरतें प्रेम की दिशा तय करती हैं
जब मां की जरुरत थी तब सिर्फ मां से प्रेम था
जब शारीरिक जरुरतें जागी
तो प्रेम का दायरा व्यापक हुआ और मेरा प्रेम तुम तक सिमट गया
फिर सामाजिक जरुरतें जाग्रत हुई तब पत्नी से प्रेम हुआ
लेकिन बच्चों के जन्म के साथ
प्रेम दूसरी दिशा में प्रवाहित होने लगा
उनमें से कुछ रिश्ते आज भी मुझमें पल रहे हैं, कुछ मृत भी हो गए।
लेकिन क्या फर्क पड़ता है जीवन मजे में है।
जब जरुरतों की सीमाएं नहीं, तो भला प्रेम की क्यों हों?
प्रेम और जरुरतें फिर बदलने लगी हैं
समझ रहा हूँ अभी, फिर समझाउंगा तुम्हें
प्रेम की नई परिभाषा।।