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प्रेम-5 / सुशीला पुरी

प्रेम
आग..आँधी..बाढ़..बारिश
से बचता-बचाता
छप्परों वाला घर है
मिट्टी का

मन की हल्दी
तन का चावल
पीस घोलकर बनती हैं अल्पनाएँ
चौखटों पर

सिक्कों-सी जड़ी होती हैं आँखें
जहाँ होते हैं...
अगोर और आँसू

किन्तु
कभी द्वार में
किवाड़ नहीं होते...!