लो !
मैं तुम्हें देती हूँ
फ़रवरी के दो
लापता दिन
क्या तुम मुझे बदले में
अपने हाथों की
दूब दोगे ?
जो मैं तुम्हारे
सिरहाने रख दूँ
बसन्त की पहली सुबह
क्या तुम दोगे मुझे
अपने शहर की
सुस्त गलियाँ ?
गर मैं दे दूँ तुम्हें
मेरे गाँव का शिवालय
वो पुराना गुम्बद और
बारहदरी के सब दर
क्या तब तुम मुझे दोगे
एक जर्जर नदी
एक मन्थर भँवर ?
दूँ अगर
दो शून्यतम आँखें
दर्ज़न कविताओं का बोझ
और हाशिए पर उगते
साँझ के खारे मौन
क्या तब तुम अन्तर में
थोड़ी जगह दोगे मुझे ?