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फगुनाए दिन / शचीन्द्र भटनागर

तुम आए
तो सुख के फिर आए दिन
बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन

पोर-पोर ऊर्जा से भरा देह-मन
निमिष-निमिष के
हलके हो गए चरण
उतर गई प्राणों तक
भोर की किरण
हो गए गुलाबी फिर सँवलाए दिन

हो गई बयार
इस प्रकार मनचली
झूमने लगी फुलवा बन कली-कली
भोर साँझ दुपहर
मन मोहने लगी
धूप-धूल से लिपटे भी भाए दिन