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फ़र्क़ / नीलेश रघुवंशी

मुझे जब-जब भूख लगी तब-तब चिल्लाई माँ पर
रोटी दो दूध दो यह नहीं मीठा वाला दो
ऐसा नहीं वैसा दो कैसा भी मत दो
माँ ने हँसते-दुलारते वही दिया जो चाहिए था मुझे
अब जब माँ को ठीक से दिखता भी नहीं
तब भूखी होते हुए भी भूख न होने का उपक्रम करती
बार-बार पेट को पल्लू से ढकती
कभी भी चिल्लाकर चाय रोटी नहीं माँगती माँ
कितना फ़र्क़ है माँ खाना दो और बेटा खाना दो में

सोमवार, 11 जुलाई 2005, भोपाल