एक सपना आँख में झलका :
कहीं पर ढोल-ताशे और शहनाई बजे
आवाज़ जैसे सिमटकर भर गई मेरे कान में,
आँसुओं से बनी, दुख के देश की लज्जावती रानी,
थिरककर किसी तारे से उतर आई बड़े अनजान में ।
जगमगाता-सा अतीन्द्रिय रूप, स्वप्नों से रंगे परिधान,
वह अज्ञातनामा राजकन्या प्राण में घिरने लगी,
एक मंडप में, अपरिचित वेद-मन्त्रों-बीच
गठबंधन किए, छाया-सरीखी, भाँवरें फिरने लगी।
बढा सपना :
बजी शहनाई, अगिनती वाद्य गूँजे,
रूपसी की बाँह मेरी बाँह में, फिर, दी गई,
स्वजन छायाओं-सरीखे बढे, मुझ से लगे कहने:
आँसुओं के देश जा , तेरी बिदाई की गई।
शुभ्रवसना वधू आगे चली, पीछे मैं विमोहित-सा,
नगर, पथ, विजन, वन, सब छोड़ता, बढता गया,
बढा कोहरा्, राजकन्या खो गई, छाया अंधेरा
मैं शिलाओं-पत्थरों पर दूर तक चढता गया। …
एक पर्वत के हिमाच्छादित शिखर पर मैं खड़ा,
नीचे अतल सागर उफनता औ’ हिलोरें मारता,
रह गया मैं चीख से अपनी, गुफाओं-कंदराओं में
बसे निर्दय, अदर्शित शून्य को गुंजारता…
फिर: अचानक प्रियतमा मेरी,
गरजते अतल जल से
जलपरी जैसी उभरकर पास मेरे आ गई,
बाँह में भरकर, मुझे भी साथ लेकर, होंठ पर
रख होंठ, फिर से लहर बीच समा गई...