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फांसी / प्रणयेश शर्मा

बधिक! तुम पहना दो जयमाल।
प्रमुदित मन जीवन से नाता,
तोड़ चुका इस काल।

अस्ताचल के श्याम शिखर पर,
छवि विहीन बेहाल।
दिन-मणि देख रहा है मुझको,
अब दो फंदा डाल।

जिस पथ पर आरूढ़ हुआ मैं,
यद्यपि वह विकराल।

किंतु इसी पथ पर चलने में,
मिलती विजय विशाल।

भूल गया था, भटक रहा था,
देख विश्व-भ्रम जाल।

नत मस्तक हो धूल-धूसरित,
कर लूं उन्नत भाल।

चर्म चक्षु है बंद-
देखता हृदय-हृदय की चाल।

पल-पल पर प्रणयेश सुन रहा,
सर्वनाश की ताल।

रचनाकाल: सन 1931