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फागुन / सुनीता जैन

बहुत दिनों में वन देवी ने
बालों को खोला है
फूलों में गूँथ कर
लट-लट में टाँका है

लिये संग में वनबाला को
देख रहीं अपनी छवि को
खड़ी ताल पे ताली दे-दे
उड़ारहीं सारस को

देख रहीं वे जिधर लता, वह
उमड़-उमड़ आती है
रख देती हैं पाँव जिधर वे
वह धरा सिहर जाती है

क्या तुमने भी मेला यह
रंगों का देखा है?