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बँटवारा / मल्लिका मुखर्जी


हर दूसरे शनिवार को बारह बजते ही
माँ बेसब्री दरवाजे की तरफ देखा करती ।
उनकी आँखों में
एक अजब सी प्यास हुआ करती थी ।
मैं भी बार-बार दरवाजे की तरफ देखती
डाक का थैला साइकिल पर लटकाए हुए
बनवारी को हमारे घर की तरफ आते देख
मैं खुशी से उछल पड़ती ।

‘माँ, नानीमाँ का खत आया है !’
बनवारी के हाथ से पोस्टकार्ड छिनकर
मैं माँ को दे देती और कहती,
‘माँ पढ़कर सुनाओ ।’
खत बंगाली भाषा में होता था
और हम भाई-बहनों को तब
बंगाली भाषा में
लिखना-पढ़ना नहीं आता था ।
माँ जोर से पढ़ती
वही सात-आठ पंक्तियाँ
जो हर खत में लिखी होती थी, पर-
न जाने क्या जादू था उन पंक्तियों में
कि हम हर बार सुनना चाहते थे ।
अंतिम पंक्ति आज भी मेरे हृदय में अंकित है-
‘भगवान न जाने कब
मेरी तरफ नज़र उठाकर देखेंगे !’
 
पढ़ते-पढ़ते माँ एक गहरी साँस लेकर चुप हो जाती ।
हम अपने–अपने काम में लग जाते ।
समय बदल गया है ।
नानीमाँ अब नहीं रही,
पिताजी भी नहीं रहे ;
माँ बुढ़ापे के अंतिम छोर पर रुकी है ।
अपने दोनों बेटों के परिवार के साथ
बारी-बारी से रहती है-
एक नया बँटवारा है !

मैं विवश हूँ ।
एक बार माँ-बेटी के रिश्ते की
उस गहराई को महसूसना चाहती हूँ,
इस पवित्र रिश्ते को जीना चाहती हूँ
जो सिर्फ पोस्टकार्ड पर लिखे
उन चंद शब्दों पर बुलंद हुआ करता था,
पर माँ को मैं पत्र नहीं लिख सकती,
फोन भी नहीं कर सकती ;
विवशता की पराकाष्ठा है ।
कभी-कभार जब माँ से मिलने का मौका आता है,
उनकी धुंधली आँखों में
मुझे एक ही पंक्ति तैरती हुई दिखाई देती है-
‘भगवान न जाने कब
मेरी तरफ नज़र उठाकर देखेंगे !’