Last modified on 22 जून 2019, at 00:11

बगुले / अरविन्द पासवान

वर्षों बाद
झुंड में दिखे बगुले
घास चर रही एक बकरी को घेरे मैदान में
जैसे कि वे पूछ रहे हों बकरी से-
तू चर गयी है पूरी-की-पूरी घास
अब हम कहाँ करेंगे अपने भोजन की तलाश
जबकि रेत हो रही है ज़मीन
बंज़र हो रही है भूमि
सूख रहे सब ताल-तलैया
नदी नहर और पोखर
नष्ट हो रहे सब गात-पात
हो रहे आदमी विषाक्त

कम-से-कम तुम तो हमारा खयाल करती

लजाई-सी सिर झुकाए
बेचारी बकरी, राह पकड़ी
अपनी ही गोहिया की

बगुले भी उड़ान थामना ही चाह रहे थे
कि उनकी नज़र पड़ी मुझपर
वे मुझे देखने लगे बड़े ही ध्यान से
न जाने देखकर मुझे
उन्हें क्या हुआ
मुझमें दुर्गंध थी ज़हर की
या दिख गया था मेरे भीतर उन्हें
कुछ और
या कि उन्हें भय था आदिम साये से ही
वे ज़ोर-ज़ोर से अपने डैनों को फरफराने लगे
और तुरत ही
वे उजले बादलों के समंदर में खो गए

मेरी आँखें ढूँढ रही हैं उन्हें
आज तक