दूर कहीं बजते मधुर गीत सा था बचपन
घर आँगन में राग उकेरता...
दिन धीमी आँच पर सीजता...
दोपहर सफ़ेद चादर सी बिछ जाती...
धूप आँखों में गमकती...
साँझ घुटनों के बल सरकती...
रात झींगुर की झीं झीं में थिर जाती...
समय का साधक पैरों पर पैर रख सुस्ताता...
पश्मीने से बादल थे
लोरी सी छाँव...
पोखर में सागर भरा था
जेबों में बेफिक्री...
किसी लम्बी उबाऊ कहानी के अनुक्रम में
रूहानी कविता सा
एक था बचपन...